मंगलवार, 18 जुलाई 2017

रचनात्मक जगत में संकीर्णता के मायने

ऐसा माना जाता है कि रचनात्मक जगत प्रायः बहुत उदार हुआ करता है। यद्यपि देखा-देखी, अनुभवों और तजुर्बों के चलते इसके अनेक खण्डन या प्रतिकथ्यी विचार हो सकते हैं लेकिन कामना तो यही लेकर चली जाती है कि यहाँ कम से कम इतना तो लोकतंत्र होता होगा कि थोड़े बहुत स्वप्न या विश्वास लेकर कोई भी कभी भी आ या जा सकता है। उसका भले स्वागत न हो लेकिन उसको घुसपैठिया नहीं कहा जायेगा, ऐसा माना जा सकता है। लेकिन पिछले दिनों टिप्पणीकार के साथ ही ऐसा वाकया हुआ जिसने इस बात को पहले तो कई तरह से सोचकर इसे नजरअन्दाज करने की प्रेरणा दी फिर बाद में एक अन्तःप्रेरणा यह भी हुई कि ऐसी वृत्ति को रेखांकित जरूर किया जाना चाहिए ताकि कम से कम ऐसी अराजकता और स्वेच्छाचारिता नियत्रित हो सके जो सर्जनात्मक संसार को भी अपने बनाये बाड़े या काँटेदार तार में बांधकर रख लेना चाहती है।

पिछले पाँच-सात सालों से सिनेमा और संस्कृति विषयों पर लिखते हुए मैंने नाटक लिखने की भी शुरूआत की। हालाँकि पहला अवसर अनायास आया था जब मैं गढ़ा मण्डला के राजा शंकर शाह और उनके बेटे रघुनाथ शाह की शहादत पर एक नाटक लिखा था। राजा शंकर शाह और उनके बेटे रघुनाथ शाह, रानी दुर्गावती के वंशज थे और भेस बदलकर, गीतों और कविताओं के माध्यम से जनक्रान्ति की अलख जगाते थे। इसके पहले नाटक लिखने का कोई अनुभव नहीं था लेकिन दायित्व मिला और रुझान बढ़ा तो विषय से जुड़े अधिक सन्दर्भों की खोजबीन ने मुझे इस माध्यम में गम्भीरता से प्रविष्ट होने वाला लेखक बनाने में मदद की। पहले मेरे पास तीन-चार पेज के सन्दर्भ थे लेकिन प्रयास करने पर पन्द्रह-बीस दुर्लभ पृष्ठ हाथ आ गये। इस नाटक को लिखना स्वाभाविक रूप से दुरूह था लेकिन छः-सात महीने लगाकर मैंने इसे तैयार किया। मुझे स्मरण हो आता है कि जब इस नाटक का क्लायमेक्स मैं लिख रहा था जिसमें दोनों पिता-पुत्रों को अंग्रेजी हुकूमत तोप में बांधकर उड़ाने की सजा देती है तब कुछ पल को मेरा रक्तचाप बढ़ गया था और तेज घबराहट होने लगी थी। रात ग्यारह बजे करीब पन्द्रह-बीस मिनट सड़क पर टहलकर मैं संयत हुआ था और उसके बाद यह दृश्य लिखा था। मित्र प्रेम गुप्ता ने बड़ी मेहनत के साथ इसको तैयार किया और मंच पर साकार किया। इसके बारह-पन्द्रह प्रदर्शन मध्यप्रदेश में हुए।

मेरे लिए प्रथम प्रदर्शन से लेकर बाद के सभी प्रदर्शन अनुभूतिजन्य रहे। यह विषय और यह नाटक जीवन में ठीक उस क्षण पर आया जब लिखने-पढ़ने की गम्म्भीरता उम्र के साथ ज्यादा सवाल करती थी। इसके बाद एक नाटक तथागत बुद्ध की जातक कथा पर लिखा, गजमोक्ष जिसके सांची, भोपाल, उज्जैन और पिछले दिनों दिल्ली में प्रदर्शन हुए। एक नाटक हवलदार महावीर प्रसाद था जो एक हेड काॅन्स्टेबल के साथ घटी घटना के जरिए हवलदार के पद पर काम करने वालों की मुश्किलों और कठिनाइयों पर था। यह भी भोपाल और उज्जैन में मंचित हुआ। हाल ही एक नाटक महान कवि त्रिलोचन शास्त्री की जन्मशताब्दी के अवसर पर उनकी एक कविता, कवि, ऋषि, देव आदि पीछे हों/ मानव पहले/ ऐसे रहो कि धरती/ बोझ तुम्हारा सह ले से प्रेरित होकर एक बुरे आदमी, एक असामाजिक तत्व पर लिखा था जो अन्ततः लोगों की बद्दुआओं, शाप, आह या कराह कह लीजिए, उसका शिकार होकर मृत्यु को प्राप्त होता है। सौभाग्यवश इस नाटक को भी दर्शकों का अच्छा प्रतिसाद मिला। मेरे लिए यह सुखद ही था कि अनुभवी, वरिष्ठ और युवा दोनों वय और अनुभव के रंगकर्मियों ने इन नाटकों को किया और दर्शकों तक सफलतापूर्वक पहुँचे। 

मेरे लिए स्वाभाविक रूप से सुखद था, टीम खुश थी, मैं भी खुश क्योंकि अच्छा लगता है आपके लिखे पात्र, आपके लिखे शब्दों के साथ मंच पर होते हैं, ऐसे में दर्शकों की हँसी या ताली और सराहना क्यों न आपका हौसला बढ़ायेगी, बिल्कुल बढ़ायेगी। खैर दो-चार दिन इस आत्मसुख के बीते कि नये नाटक ऐसे रहो कि धरती के मुख्य कलाकार विशाल आचार्य ने शहर के किसी युवा रंगकर्मी का फेसबुक वक्तव्य मुझे अवलोकन के लिए भेजा, जो मेरी ही तारीफ में था। मेरे नाम का जिक्र करते हुए लिखा था, कि इन साहब का मन नौकरी में नहीं लग रहा है इसलिए नाटक में घुसपैठिए की तरह घुस आये हैं। आओ, आओ, सब लोग आओ जिनको शो चाहिए हों, इनका लिखा नाटक करो। सहलाओ, सहलाओ, इतना सहलाओ कि लाल हो जाये और मवाद निकलने लगे..........। यह पोस्ट उस युवक ने रात को अपने वाल पर साहसपूर्वक प्रस्तुत की थी पर अगले दिन सुबह उसको हटा भी लिया लेकिन स्वाभाविक रूप से बहुत से मित्रों की निगाह वह दृष्टान्त चढ़ गया। अनेक तरह के स्वभाव के वशीभूत मित्रगण अपनी तरह विचलित, उत्तेजित और क्रोधित भी हुए लेकिन सभी को प्रेमपूर्वक, शपथपूर्वक यह समझाने में सफलता प्राप्त की कि रचनात्मक जगत का सच्चा लोकतंत्र भी यही है कि सबको अपनी राय व्यक्त करने दी जाये। यह भी समझा सका कि रात को पोस्ट डालने में सम्भव है स्वविवेक अथवा प्रेरणाएँ किसी भी आवेगी मनःस्थिति में काम कर रहीं होंगी लेकिन सुबह हटा लेना जरूर माता-पिता की अच्छी शिक्षा का नतीजा है, खैर।

बात यह जरूर उठती है कि रचनात्मक जगत में अपनी शुरूआत करते हुए, अपना स्थान बनाने की जद्दोजहद करते हुए, दूसरे बहुत सारे बड़े लोगों के सामने स्वयं समय के साथ पूछे-परखे जाने के समय में यथातार्किकता समय लगते हुए मानस का विद्रोही या अराजक हो जाना स्वाभाविक हो सकता है लेकिन क्षमताओं का सच्चा प्रदर्शन ऐसे वक्तव्यों या तथाकथित बहादुरियों से कहाँ आँका जा सकता है, कोई नहीं आँक रहा होता है। समय की अपनी नसीहतें हैं। उससे आगे दौड़ा नहीं जा सकता और न ही अपने आसपास, आगे-पीछे चल रहे किसी को धक्का ही दिया जा सकता है, न ही रौंदा ही जा सकता है। अपरिपक्वता उम्र, परिवेश और संस्कारों के साथ-साथ हमारी अपनी जड़ता का भी सच है और सच संसार में सबसे बड़ा है।




  

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