मंगलवार, 25 जुलाई 2017

वक्त लेने और वक्त लगने में असरहीन होने वाला सिनेमा

बात जग्‍गा जासूस और उसकी विफलता से शुरू होती है.....



बीते सप्ताह दर्शकों के सामने वो फिल्म आयी जिसे बनने में लगभग चार साल से अधिक समय व्यतीत हो गया। अपनी जिजीविषा से कैंसर जैसी भयावह बीमारी से जीत और जूझकर अच्छे-भले बाहर निकल आये अनुराग बासु को फिल्म के नायक और उनके रूमानी रिश्तों के बनने और टूटने के कारणों ने ऐसी मुश्किलें खड़ी कीं जो इससे पहले उनके सामने कभी पेश न आयीं थीं। यह तब हुआ जब नायक ही फिल्म के निर्माण में भागीदार भी था। यह तब हुआ जब नायक-नायिका के बीच सबसे ज्यादा चर्चित रिश्ता इन्हीं चार साल की अवधि में बना और समाप्त भी हुआ। यह ऐसे दौर में हुआ जब नायक का समय सिनेमा के बाजार में अच्छा नहीं चल रहा है। ऐसे समय में जब नायक और नायिका दोनों को एक अच्छी और सफल फिल्म की जरूरत थी, फिल्म का ज्योतिष ऐसा गड़बड़ा गया कि जग्गा जासूस न उगलने की रही और न निगलने की। उत्तरार्ध में तो यह भी हो गया था कि निर्देशक से लेकर कलाकार तक जैसे तैसे इस फिल्म को पूरा कर गंगा नहाना चाहते थे। प्रदर्शित होने के बाद आलोचकों ने भी इसे पैसेंजर ट्रेन समझकर आकलन किया और एक सहज ग्राहृय मनोरंजनप्रधान फिल्म के मूलतत्व को चर्चा में उपेक्षित कर दिया। दर्शक का भी प्रतिसाद रणबीर और कैटरीना की इस फिल्म को न मिल सका।

सिनेमा में ऐसे उदाहरण बहुतेरे रहे हैं जब फिल्में अच्छी-खासी बनना शुरू हुईं और अचानक उनकी गति-प्रगति पर ग्रहण लग गया। इस कारण उनकी रफ्तार प्रभावित हुई तथा जिस ऊर्जा के साथ फिल्म सोची गयी थी, पूरी होते-होते वह फिल्म में थकी-थकायी लगन का क्षीण सा प्रतिबिम्ब नजर आने लगी और फिर होना वही था यानी फिल्म का विफल हो जाना। इतिहास में वे उदाहरण अलग हैं जब दो यादगार और अविस्मरणीय फिल्में अच्छा-खासा वक्त लेकर बनी लेकिन उनकी सफलता ने उस सारे परिश्रम का वह परिणाम दिया कि बनाने वालों की पीढ़ियाँ तक न कुछ करें तो भी आनंद में रहेंगी। ऐसी फिल्मों में हम कारदार आसिफ की मुगले आजम, कमाल अमरोही की पाकीजा, आसिफ की ही लव एण्ड गाॅड और रमेश सिप्पी की शोले का जिक्र करते हैं। पहली फिल्म दस साल से अधिक समय लेकर बनी लेकिन शुरू से अन्त तक फिल्म देखते हुए यह लगा ही नहीं कि एक दशक में कलाकारों के चेहरे पर या व्यक्तित्व में कोई परिवर्तन आया है। इसी तरह पाकीजा को बनने में करीब बारह साल लग गये। 

लव एण्ड गाॅड को बनने में लगा समय और फिल्म के नायकों गुरुदत्त और बाद में संजीव कुमार की मृत्यु से उसे अभिशप्त फिल्म कहा जाने लगा। चार साल में बनी शोले तब इतने समय में बनी जब रमेश सिप्पी कर्नाटक के जंगल में रामगढ़ बसाकर सारे कलाकारों को अधिक से अधिक समय के लिए वहीं रखे रहे लेकिन हिन्दी सिनेमा में वह ऐसे उदाहरण वाली फिल्म बनकर याद की जाती है जो लोगों को रटी हुई है। अगर वास्तव में सिनेमा बनाते हुए कोई बड़ा ऐतिहासिक बीड़ा उठाया गया हो जिसमें तमाम शोध किया जा रहा हो, एक-एक बात पर सटीक और सधा हुआ काम किया जा रहा हो, उत्कृष्टता के स्तर पर कोई समझौता न किया जा रहा हो तब उसमें वक्त लगे तो बात जायज हो जाती है और इसका एक ही बड़ा उदाहरण रिचर्ड एटिनबरो की फिल्म गांधी है जिसकी परिकल्पना से प्रदर्शन तक का समय लगभग बीस साल का माना जाता है। यह अपने आपमें एक मापदण्ड, एक इतिहास है जो न तो दोहराया जा सका है और न ही जिसका दोहराया जाना आसान ही होगा। इसके पटकथाकार जाॅन बैले ने सम्पूर्ण गांधी वांग्मय का अध्ययन कर फिल्म की पटकथा तैयार की जिसके लिए उनको मूल पटकथा का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला।

ऐसे यशस्वी उदाहरणों को याद करते हुए हम एक बार फिर आज पर आते हैं तो यही लगता है कि वे सितारे भी मौलिकता और रचनात्मकता की परिभाषा नहीं समझते या समझना चाहते जिनका समय प्रतिकूल चल रहा है या जिन्हें लम्बे अन्तराल के बाद एक बार फिर अपने आपको दर्शकों के सामने साबित करने की आवश्यकता है। जग्गा जासूस यों तो नाम ही बहुत बुरा है जो जग्गा के रूप में एक नकारात्मक संज्ञा को आभासित करता है जबकि फिल्म का नायक छबि मेें सुन्दर, मुलायम और खासा मासूम छबि वाला है। जग्गा कुछ खलनायकी आभास देता है सो फिल्म का नाम कुछ और रखा जा सकता था। यह भी समझा जाता है कि निर्देशक पटकथा पहले से पूरी गढ़कर रखने और उसके अनुरूप चलने के बजाय आशु कवि की तरह आशु पटकथा और संवाद लेखक की तरह काम करते रहे हैं। 

नायक के बयानबाजी में प्राय: भावुक और उग्र हो जाने वाले पिता सारा दोष निर्देशक पर मढ़ने में कोई मुरव्‍वत नहीं कर रहे जबकि शायद ये वो भूल गये कि इन्‍हीं अनुराग बासु ने रणबीर को लेकर बरफी जैसी महत्‍वपूर्ण फिल्‍म भी बनायी थी। परिस्‍थतियों को जाने बगैर केवल निर्देशक को दोषी ठहराना न्‍यायोचित नहीं है। नायक पिता को निर्माता बेटे के असमंजसों का भी पता होना चाहिए, भले वो न बताये पर जमाने के साथ वे भी न जान रहे हों, ऐसा हो नहीं सकता। ऐसी स्थिति में जब नायक के पास अपनी प्रेमिका नायिका के पास साथ दो पल सहज होकर बैठने का मन न हो, इस धीरज के साथ कैसे समय निकाल सकता है कि निर्देशक दृश्य लिख-लिखकर देता जा रहा है और पूर्वाभ्यास और फिल्मांकन उसके बाद हो रहा है। सो फिल्म को इस परिणाम तक तो जाना ही था। कुछ सदाशयी आलोचक इस फिल्म को सहनशीलता के साथ देखने का सुझाव देते हैं पर सार्थक एकाग्रता के बिना बनी फिल्म के प्रति सदाशयी होना, सहनशील होना, सहानुभूति रखना दर्शक के सिर पर ठीकरा फोड़ने जैसा नहीं है क्या?




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