बुधवार, 12 जुलाई 2017

रुधिर में जाकर मिल गये अश्रुओं से......

स्‍मरण : माँ बिछोहे दो साल 



पता नहीं चल पाता, नहीं रोना अपने वश में है या रुलायी आये तो नहीं रोक पाना अपने वश में है, नहीं है। जिन्होंने अपने जिए रहते कभी रोने नहीं दिया, कहने से पहले कामनाओं में जिन्होंने सबकुछ जानकर पूरा कर दिया, जब वो चली गयीं तो उसके बाद भी रोने को जैसे बांध गयीं हों। उनके जाने के दो साल बाद भी आज तक ऐसा एकान्त, ऐसी जगह, ऐसा समय नहीं मिला जब उनके बिछोह में खूब बिलख-बिलखकर रो सकूँ। अभी भी यह सब लिखते हुए ऐसा ही हो रहा है, दो-चार आँसू जैसे हूक उठने पर औपचारिकताएँ प्रकटकर आँखों में ही ठहर गये हैं। बाकी सब ठीक है, जीवन चल रहा है, उनके जाने के बाद भी। उनके जाने के बाद की टूट-फूट अब उनकी कामना करने से ठीक होती है जो पहले उनके एक स्पर्श और थोड़े से उपक्रम से दूर भाग जाती थी।

मुझे कभी लगता ही नहीं था कि कभी जागता हुआ सोऊँगा तो यह सच मन और दिमाग में रहेगा कि माँ नहीं हैं, न कभी यह सोचा कि सोते से जागूँगा तो अकेला ही उठकर बैठना होगा, इस सच के साथ कि माँ नहीं हैं। माँ का चला जाना सहन करना बहुत असहनीय रहा है लेकिन उसको सहन करना जैसे मुझे आप अपनी परीक्षा देना होता रहा है। बचपन में ही स्कूल जाने में बहुत रोता था तो माँ ही प्यार से लेकर डाँट तक कर मुझे स्कूल भेजती थीं। पढ़ने उठना से लेकर परीक्षा देना भी मेरे लिए ऐसा ही रहा है। मुझे लगता है कि उनके जाने के बाद अब हर दिन परीक्षा दिया करता हूँ। यह परीक्षा लगातार विफल करती है, विफलता देती है क्योंकि उनका बिछोह सहन कर पाना आसान नहीं है। एक अजीब किस्म का भटकाव लगातार काम करता है जिसमें उनका आभासित होना भ्रम सही पर बहुत सारे विश्वासों को अपनी अविश्वसनीयता में ही सही, बनाकर रखता है। सबके लिए हँसना होता है, सबसे बात करनी होती है, अपने पास से सबको वह सब उसकी इच्छा और सन्तोष का देना होता है जो उसे चाहिए। यह सब करते हुए बीच-बीच में एकदम अकेला हो जाया करता हूँ। एकदम शून्य में अपने को देखता हूँ कि फिर आसपास कोई चहल-पहल उस इच्छित या चाहे गये शोक से बाहर कर देती है।

माँ के रहते हुए चोट, दर्द, पीड़ा या कराह में उनका उच्चारण नहीं होता था। अब होने लगा है। सहनसीमा के पार चली जाने वाली हर स्थिति में माँ बोले से रुका नहीं जाता। मैं उनको मन, आत्मा और शरीर की अनेकानेक पीड़ाओं से मुक्त होने के बाद भी अपनी मुसीबतों में बुलाने लगता हूँ। मैं उनके रहते भी उनको चैन से बैठने नहीं देता था और उनके नहीं रहने के बाद भी उनको चैन से बैठने नहीं देता हूँ। सच यह है कि मैं चैन से नहीं बैठ पाता हूँ।

क्या कोई माँ को भुला सकता है? नहीं न। मैं कैसे भुला सकता हूँ। सन्तानों में उनके संघर्ष का पहला साक्षी रहा हूँ। जीवन और संघर्ष की उनकी यात्रा, उनके स्वप्न, उनका परिश्रम, दुख-सुख, एक-एक तिनका उनका संजोना। बहुत बड़ी बाँहें थीं उनकी जिसमें न जाने कितनी जवाबदेहियाँ वे ले लिया करती थीं। उनके अपने शरीर से बस केवल उनकी एक माँ थीं लेकिन हमारे पिता के पक्ष से भरापूरा परिवार। वे स्व-एकाक्य में सबको साथ लेकर चलने वाली ऐसी स्त्री थीं जिनको पारिवारिक लोकतंत्र में बड़ा विश्वास था। सबको खुश करके उनके चेहरे पर बड़ी खुशी मैंने देखी। इन मायनों में मेरा जरा भी स्मृतिलोप नहीं हुआ बल्कि अपने शैशवकाल से अब तक सारा कुछ याद है। 

जीवन में जून की 26 तारीख उनके चले जाने की, उनसे बिछोह की इस तरह बिंधी हुई है कि उसकी मन पर नोेक हमेशा महसूस करता हूँ। वह चुभन चली जाये यह भी नहीं चाहता। चुभन की पीड़ा, उसका लगातार बने रहना बार-बार उस व्यथा, उस दुख को फिर उस सिरे पर न केवल ले जाकर खड़ा कर देता है बल्कि वह सिरा हाथ में पकड़ाकर, उसे पकड़े-पकड़े फिर एक-एक कदम चलते हुए आज तक आने को कहता है। इस बार दो साल हो गये। दो साल में सात सौ तीस दिन बीत गये। ऐसा लगता है कि देह में रुधिर के साथ आँसू भी समरस हो गये हैं। अनेक बार प्रतीत होता है कि मैं स्वयं अपनी देह को ओढ़कर उस ताप में थोड़ा जीवन जियूँ। कई बार मन करता है इस कुनकुनी देह को मैं आप अपनी बाँहों में समेट लूँ और उसकी ऊष्मा, उसका ताप महसूस करूँ। शायद ऐसा कुछ होने भी लगता है। बहुत कुछ होने लगता है फिर भी बिलखकर रोने को तरसता हूँ।

मैं कहीं भाग नहीं सकता, शायद भाग भी न पाऊँगा। माँ की याद आती है तो उनकी कही बात भी याद आती है जो वे अक्सर तकलीफ, कठिनाइयों या मुसीबतों में कहा करती थीं, कि हम कहाँ भाग कर चले जायें? नहीं जा सकते। जो है सब यहीं रहकर है। वो माँ थीं, कहती थीं, मैं भी यही कहता हूँ अपने आपसे कि मैं चाहकर भी नहीं भाग सकता हूँ। मैं उनकी छबि, उनकी आँखों से लगातार आँखें मिलाकर अपने आपको जीते महसूस करना चाहता हूँ। मैं उनके नहीं होने के सच से अपने उनके मुझमें भीतर होने के विश्वास के साथ द्वन्द्वरत रहना चाहता हूँ। कहीं जाना नहीं चाहता। काश मुझे कोई ऐसी कोठरी मिल जाये जिसमें मैं अकेला इस द्वन्द्व से जूझता रहूँ चाहे मन या आत्मा कितनी ही लहुलुहान ही क्यों न हो जाये।

इसी 26 जून जब उनको दो साल हो रहे थे, उनकी स्मृति में नेमावर घाट पर जाकर वहाँ रहने वाले वृद्धों को खाना खिलाने की अपनी इच्छा पूरी करने के लिए घर से निकलकर सड़क पर आया ही था तो क्या देखता हूँ अगले मुहल्ले में खूब भीड़ लगी है। दृष्टव्य घर में कोई दिवंगत हो गया है। घर से थोड़ी दूर पर अन्तिम यात्रा के लिए ले जाने वाला वाहन खड़ा हुआ है जो पीछे से खुला हुआ है। पार्थिव देह रखी जाने के लिए घर से निकाली गयी है। अनेक महिलाएँ, लड़कियाँ, बच्चियाँ बिलख-बिलखकर रो रही हैं। कुछ ढांढस बंधाते पुरुष, एक पुरुष एक महिला के मुँह पर पानी के छींटे मारते हुए क्योंकि वे मूर्च्छित हो रही हैं.......................

मैं अपने आपको रोक नहीं पाया हूँ। मुझे आज का दिन, दो साल पहले का समय और मेरी माँ के साथ इन्हीं दृश्यों का स्मरण हो आया है, मैं भी इन सबके साथ बिलखकर रोने लगा हूँ............मेरा दुख, इनका दुख, हम सबका दुख कितना एक सरीखा है............आज इस परिवार ने भी अपने प्रियजन को खो दिया है...............


2 टिप्‍पणियां:

  1. माँ के बराबर कोई नहीं हो सकता, आपका लेख पड़ने के बाद
    मुझे अपनी माँ की याद आ गयी अश्रुपूर्ण विदाई आज भी याद है
    सुनील जी धन्यवाद

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    1. सुमन जी, यह भावनात्‍मक आत्‍मकथ्‍य है। मन से निकली बात। आपके मन को छू गयी, बिछोह की पीड़ा तो एक जैसी ही है हम सभी की। कृतज्ञ हूँ आपने पढ़ा और प्रतिक्रिया दी।

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