सोमवार, 31 जुलाई 2017

महाश्वेता देवी की कृतियों का सिनेमा

दुरूह लेकिन उतना ही चुनौतीभरा 



महाश्वेता देवी, कला और सृजन जगत की निरन्तर हाल ही के दिनों में होने वाली असाधारण क्षतियों में एक और बड़ी क्षति हैं। उनका योगदान इतना बड़ा और इतना विस्तीर्ण है कि देश और सृजन संसार उनको अनेकों आयामों और प्रभावों के साथ याद करेगा। साहित्य से लेकर सिनेमा और समाज से लेकर सरोकार तक उम्र के नब्बे साल तक उन्होंने जो किया वह बहुत और विराट है। उसका जितना आकलन होगा, कम होगा। बंगला साहित्य और सृजन के आलोक में भी देश और दुनिया की प्रतिष्ठित लेखिका इन अर्थों में बनीं कि उनका रचा अपनी धारा तक ही सीमित न रहकर अनेकानेक धाराओं में विभक्त होता चला गया। प्रत्येक भाषा में उनके सृजन को आदरपूर्वक लिया गया है उसकी व्याख्या, रूपान्तर, भाष्य और प्रयोग किए गये। महाश्वेता देवी का सर्जनाकाल बहुत लम्बा रहा है। उन्होंने जीवन और पुरुषार्थ को अपने सृजन से संवेदनापूर्वक जोड़ा, इसके लिए वे जानी जाती रही हैं। उनके विस्तीर्ण कृतित्व में शोषण, जुल्म, दमन और मानवीय अस्थिरता के अनेकानेक कोणों की अत्यन्त सूक्ष्मता के साथ पड़ताल की गयी है। उनकी रचनाधर्मिता से कई चुनौतीपूर्ण कृतियों को हमारे अनन्य कला माध्यमों में प्रयोग करने का साहस रंगकर्मियों और फिल्म निर्देशकों ने किया है। गोविन्द निहलानी जैसे उत्कृष्ट फिल्मकार यह मानते हैं कि हजार चैरासी की माँ बनाते हुए उनके अनुभव चुनौतियोंभरे रहे, उतने ही विलक्षण भी। 

महाश्वेता देवी की चार कृतियों पर भारतीय सिनेमा में महत्वपूर्ण निर्देशकों ने पिछले पचास साल में फिल्में बनायीं हैैंैं । हरनाम सिंह रवैल ने 1968 में दिलीप कुमार, वैजयन्ती माला, बलराज साहनी, संजीव कुमार, जयन्त और सप्रू की प्रमुख भूमिकाओं वाली एक महत्वपूर्ण फिल्म संघर्ष उनकी ही कृति पर बनायी थी। संघर्ष फिल्म अपने प्रदर्शन काल में सुर्खियों में आयी थी क्योंकि फिल्म में बनारस के घाट पर पण्डों के बीच वैमनस्य और अपराध की घटनाओं के बीच एक ऐसा तानाबाना बुना गया था जो रसूख और प्रभाव के पीछे रिश्ते-नातों की परिधि को भी तोड़कर सनसनीखेज वारदात तक जाता है। यह फिल्म अपने आपमें एक साहस है क्योंकि अपने प्रदर्शनकाल में इस फिल्म को भारी विरोध का सामना करना पड़ा था लेकिन यह फिल्म यथार्थ का ऐसा साक्ष्य बनी कि निर्देशक ने इसमें कोई परिवर्तन नहीं किया और आज भी इसे ज्यों का त्यों देखा जा सकता है। धन, बल, रसूख और वर्चस्व की अदम्य कामना किस तरह एक घर-परिवार में हिंसक वैमनस्य को जन्म देती है और ऐसे अपराध तक ले जाती है जिसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती। 

एक और फिल्म रुदाली का निर्माण कल्पना लाजमी ने 1993 में उनके ही उपन्यास पर किया था जिसमें डिम्पल कपाड़िया की मुख्य भूमिका थी और अपने स्वर तथा संगीत से भूपेन हजारिका ने उसके आभासों को एक अलग ही स्पर्श प्रदान किया था जो मन को छूता है, अनेकानेक वेदना-संवेदनाओं से। रुदाली डिम्पल के जीवन की श्रेष्ठ फिल्म है जो राजस्थान में मृत्यु पर स्यापा करने के लिए बुलायी जाने वाली स्त्रियों के विलाप के लोकाचार और परम्परा के विपरीत संवेदनशील प्रश्न खड़ा करती है। यह फिल्म भारतीय सिनेमा की दो शीर्ष अभिनेत्रियों राखी गुलजार एवं डिम्पल कपाड़िया की अपने किरदारों को जीने की असाधारण क्षमता को प्रकट करती है। किस तरह एक दमित परम्परा का निर्वाह अनेक समझौतों, शोषण और गहन वेदना की कीमत पर होता है। देखा जाये तो रुदाली फिल्म का एक गाना जो भूपेन हजारिका और लता मंगेशकर दोनों ने अलग-अलग गाया है, मन हूम हूम करे, घबराये......इस गाने को संवेदना और एकाग्रता से सुनते हुए या देखते हुए पूरा वातावरण बहुत बोझिल लगने लगता है। निर्देशिका कल्पना लाजमी ने इस फिल्म के निर्देशन के साथ रुढ़ियों और परम्पराओं के स्याह पक्ष को बड़े साहस के साथ कुरेदने की कोशिश की है। 

तीसरी 1998 में बनी फिल्म हजार चैरासी की माँ है जिसमें जया बच्चन एक अरसे बाद परदे पर नजर आयीं थी। इस फिल्म निर्देशन प्रतिष्ठित निर्देशक गोविन्द निहलानी ने किया था। हजार चैरासी की माँ में नक्सली गतिविधियों में लिप्त बेटे का मुठभेड़ में मारा जाना और बाद में पूछताछ तथा पड़ताल की प्रताड़ना को मानवीय अर्थों में विवेचित किया गया है। यह फिल्म एक माँ की निगाह से अपने बेटे के भटकाव और पारिवारिक स्नेह में कमी की स्थितियोें को बड़े ही संवेदनशील ढंग से अभिव्यक्त करने वाली थी। इस फिल्म का वह दृश्य मर्मस्पर्शी है जिसमें घर से जाता हुआ बेटा माँ से हाथ हिलाकर विदा लेता है, माँ सोचती है चला गया लेकिन वह फिर लौटकर मुस्कुराता है और जाने के लिए फिर हाथ हिलाता है। माँ को बाद में हमेशा के लिए चले गये बेटे के अगले ही पल से फिर लौट आने का भरोसा है, यही उम्मीद भी जो कि पूरी नहीं होती। हजार चैरासी की माँ में पिता अनुपम खेर और माँ जया बच्चन दो पृथक ध्रुव हैं जिसमें पिता की अपने तथाकथित अकर्मण्य बेटे के प्रति नफरत और सामाजिक डर तथा माँ का बेटे के प्रति अगाध प्रेम और ममत्व अनेक सशक्त दृश्यों में टकराते हैं। जया बच्चन जिन्होंने सुजाता का किरदार किया है, अपनी चुप्पी और अपनी वेदना में बहुधा अनुपम खेर और उनके चरित्र पर भारी पड़ती हैं। 


एक फिल्म माटी माय है, मराठी में जिसे चित्रा पालेकर ने निर्देशित किया था। महाश्वेता देवी की लघु कथा डायन पर एकाग्र यह फिल्म 2006 में बनी थी लेकिन ज्यादा चर्चा में नहीं आ सकी थी। माटी माय में नंदिता दास, अतुल कुलकर्णी आदि की प्रमुख भूमिकाएँ थीं। इसका प्रदर्शन भी ठीक से नहीं हो पाया था। ब्रेस्ट स्टोरीज किताब में प्रकाशित महाश्वेता देवी की लघु कथा चोली के पीछे पर बनी पाँचवी फिल्म गंगोर है जिसे इतालो स्पिनली ने निर्देशित किया था। यह फिल्म शोषण और बलात्कार की घटनाओं के बीच एक मार्मिक कथा थी। इस फिल्म में तिलोत्तमा शोम, आदिल हुसैन, प्रियंका बोस आदि ने काम किया था। इस फिल्म का एक दृश्य बलात्कार के विरोध में स्त्रियों और पीड़िताओं का आवक्ष प्रदर्शन भी था जिसके फिल्मांकन की बड़ी चर्चा भी हुई थी। गंगोर एक अलग सा प्रयोग था जो सिनेमा में साहस का प्रतीक और पर्याय माना जाता है। हालाँकि लम्बे समय तक होता यह रहा है कि बहुत अच्छा फिल्मांकन, बहुत अच्छा कथ्य और बहुत अच्छे प्रयोग अधिक संख्या में दर्शकों तक पहुँच नहीं पाते। उत्कृष्ट सिनेमा की अपनी यह विडम्बना है कि वह बना-सहेजा कहीं रखा रहता है और दर्शक से उसकी बड़ी दूरी होती है। दर्शक की यह विडम्बना है कि वह इस माध्यम के संवेदनशील धरातल और सार्थक पर्यायों तक पहुँच नहीं पाता। स्वाभाविक रूप से इसमें सिनेमा का कोई दोष नहीं है और न ही माना जाना चाहिए। 

हम फिर भी इस बात को साहसिक ही मानेंगे कि कुछ अलग धारा के फिल्मकारों, लीक से अलग हटकर साहस-दुस्साहस करने वाले निर्देशकों, पटकथकारों ने न केवल हिन्दी बल्कि दूसरी भाषाओं के सिनेमा में अपना सार्थक हस्तक्षेप किया है। यों तो महाश्वेता देवी की और भी कृतियाँ हैं जिन पर फिल्मांकन की चुनौतियाँ उठानी चाहिए लेकिन अब उतने जुझारू फिल्मकार कम दीखते हैं। वास्तव में महाश्वेता देवी का कृतित्व फिल्मांकन की दृष्टि से किसी भी फिल्मकार के लिए आसान कर्म नहीं था। यही कारण था कि कम ही फिल्मकारों का साहस उनकी कृतियों पर काम करने का हुआ लेकिन बावजूद इसके जो कुछ भी चार-पाँच फिल्में उनकी कृतियों पर सिने-इतिहास का हिस्सा हैं, वे उद्वेलित और विचार के धरातल पर सोचने के लिए विवश जरूर करती हैं। 


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