यह दर्शकों का गढ़ा गया नायक नहीं है
अपेक्षाएँ बढ़ा देना या बढ़ा लेना दोनों
कालान्तर में बड़ी सावधानी की मांग करते हैं। किसी एक व्यग्रताभरी जिज्ञासा के मानस
पर दर्शकों को पहुँचाकर फिर आगे विकल्प की मुश्किलों के बीच समझौते वाली राह पर
सहमत करना बहुत कठिन होता है। कल सुबह से ही अंग्रेजी अखबारों की समीक्षाएँ जिस
तरह ट्यूबलाइट के प्रति निराशा का प्रदर्शन कर रही थीं, उन पर बिना देखे
विश्वास वैसे भी होना नहीं था लेकिन धीरे-धीरे हिन्दी अखबारों के समीक्षक भी जब
समीक्षा लिखने से पहले उसी निराशा में फँसे तो फिर लगा कि देख लेना चाहिए, देखकर बात करना
चाहिए.......? ट्यूबलाइट की पृष्ठभूमि भारत और चीन युद्ध का कालखण्ड, एक गाँव का परिवेश
और वहाँ से युवकों का फौज में जाना, युद्ध लड़ना आदि है, जिसमें हमारे नायक की कहानी चलती है जो मनःस्थिति में कमजोर है, बातों को देर से
समझ पाता है जिसके लिए वह गाँव भर के उपहास का पात्र है लेकिन संवेदना, साहस, यकीन और अच्छी
बातों के अनुसरण के लिहाज से वह कुछ लोगों के लिए राजा बेटा भी है।
सलमान खान ने यह भूमिका की है। पिछली आठ
फिल्मों की तरह जब वे इस फिल्म में परदे पर पहली बार आते हैं तो उस मात्रा में
सीटी या ताली नहीं बजती क्योंकि दर्शक शुरू में ही जान गया है कि नायक का चरित्र
ईश्वर, बेटा जैसी फिल्मों के नायक का मिला-जुला रूप है। भाई का फौज में
जाकर न लौटना, बड़े भाई की व्याकुलता और आस्था, यकीन और विश्वास के सहारे कहानी का
सकारात्मक रूप से सम्पन्न करना बहुत प्रभावी नहीं रह गया है। उसमें कबीर खान कुछ
नहीं कर सकते क्योंकि वे पटकथा लेखक से इसी तरह की फिल्म के लिए सहमत हैं।
सलमान खान
को एक चीनी बच्चे और उसकी माँ के साथ दोस्ती और अपने कस्बे में उस दोस्ती के आये
दिन भुगतने वाले बुरे नतीजों के साथ देखते हुए कोई जिज्ञासा या उत्सुकता नहीं
होती। सोहेल खान शुरू में भाई के साथ एक गाना गाकर फौज में भरती हो जाते हैं। गाँव
के बुजुर्ग ओमपुरी और उनके गांधीवादी आदर्शों का पालन करने वाला केवल हमारा नायक
ही है सो वह लिखा दृष्टान्त साथ में रखे दर्शकों की भी भावुकता को जाग्रत करता है।
फिल्म बनाना महँगा काम है, फिर बड़े
सितारे और निर्देशक जब यह काम,
बड़े लाभ की कामना के साथ करते हैं तो और भी जोखिम बढ़ जाते हैं।
आज के समय में इस फिल्म के विषय की प्रासंगिकता को फिल्म की टीम ही रेखांकित कर
सकती है।
बड़ा अजीब सा लगता है, गाँव में एक फौजी अधिकारी यशपाल शर्मा आया है, वह दुश्मनों से लड़ने
की युवाओं को चुनौती देता है और गाँव के दरजनभर लड़के चार दिन के प्रशिक्षण के बाद
युद्ध लड़ने पहुँच जाते हैं, जाहिर है हारे जाते हैं, मारे जाते हैं। फिल्म का नायक हमेशा पैण्ट की जिप बन्द करना भूल जाता है
जिसके लिए उसकी सब हँसी उड़ाते हैं। कहानीकार और पटकथा लेखक यह नहीं सोचते कि पैण्ट
1962 में पैण्ट-पतलून में जिप नहीं बटन लगाये जाते थे, जिप बहुत बाद में आयी।
हमें फिल्म के नायक और सहनायक अधिक कद्दावर लगे, वजह यह रही होगी कि सुल्तान के साथ-साथ इसकी
भी शूटिंग शुरू हो गयी होगी। फिल्म में
नायिकाओं की जगह थोड़ी सी है लेकिन फिर भी ईशा तलवार, जूजू प्रभावित करती हैं। यशपाल शर्मा एक
बड़ी भूमिका को यथासम्भव आत्मविश्वास से निबाहते हैं, यद्यपि उसमें ज्यादा कुछ करने को होता
नहीं। ओमपुरी को देखना भावुक करता है। मोहम्मद जीशान अय्यूब थिएटर और दिल्ली के
जुझारू युवा वातावरण के अनुरूप अपने काम से ज्यादा प्रभावित करते हैं। ब्रजेन्द्र
काला को देखना, अंजन श्रीवास्तव की याद दिलाता है जो अब फिल्मों में दिखायी
नहीं देते। असीम मिश्रा सिने छायाकार हैं, लैण्डस्कैप के साथ-साथ वे भीड़ दृश्यों, क्लोज-शॉट्स और
लांग शॉट्स में अपनी कल्पनाशीलता का अच्छा परिचय देते हैं। अनगढ़ पहाड़ों पर बसायी
गयी लोकेशन, नायक के सायकिल चलाने के दृश्यों को उन्होंने खूबसूरती से
प्रस्तुत किया है।
कुल मिलाकर ट्यूबलाइट दर्शक के लिए एक हताशा है, एक उम्मीद का पूरा न होना, एक नायक को उसकी पिछली जिन आठ
फिल्मों में सराहते-पसन्द करते इस ऊँचाई तक ले आना है, वहाँ यह उम्मीद आकर ठिठक गयी है।
सलमान खान के लिए यह सोचने का विषय है, इस बीच करोड़ों के कलेक्शन के आँकड़े दिन-ब-दिन कुछ भी कहते रहें, यह बात नजरअन्दाज करने की नहीं
है............
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