गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

स्‍मृति शेष : ऊषा गांगुली


हिन्‍दी रंगमंच और स्‍त्री पक्षधरता की सशक्‍त पहचान




ऊषा गांगुली का देहावसान स्‍तब्‍ध कर देने वाली खबर है। इस बात की कल्‍पना करके ही ताज्‍जुब हो उठता है कि पचहत्‍तर वर्ष की उम्र में भी वे तब इतनी स्‍फूर्त, जाग्रत और गजब की सक्रिय थीं जब उनको पीड़ादायक शारीरिक व्‍याधियॉं पिछले कुछ समय से लगातार तंग किए थीं। इन कष्‍टों ने उनके काम, काम की उत्‍कृष्‍टता और नित्‍यप्रति अपना तमाम समय रंगअभ्‍यास और परिपक्‍वता के लिए समर्पित किए रहना और उतनी ही जीवन्‍तता तथा ऊर्जा से सभी से संवाद और मेलजोल बनाये रखने को रंचमात्र भी प्रभावित नहीं किया। किसी भी सृजनात्‍मक व्‍यक्ति के लिए उसका शारीरिक स्‍वास्‍थ्‍य बड़ा मायने रखता है। हमारे समय में हबीब तनवीर, ब व कारन्‍त, गिरीश कर्नाड जैसे अनेक रंगकर्मी इस बात के उदाहरण बने हैं कि उन्‍होंने भयानक एवं कष्‍टप्रद बीमारियों को धता बताकर अपनी सृजनयात्रा जारी रखी। इन्‍हीं सब बातों को सोचकर उनका जाना स्‍वाभाविक नहीं लगता, अचानक जाना लगता है जिसकी न तो कल्‍पना थी और न ही आभास या अन्‍देशा।

डॉ ऊषा गांगुली को नाट्यकर्म का अपने आपमें सर्वस्‍व पहली बार तब जानने का अवसर मिला था जब लगभग पन्‍द्रह-सोलह वर्ष पहले वे उज्‍जैन आयीं थीं। मौका था प्रख्‍यात रंगकर्मी और स्‍टेज आकल्‍पक खालेद चौधुरी को राष्‍ट्रीय कालिदास सम्‍मान का अलंकरण। अलंकरण के उपरान्‍त उनके कृतित्‍व का एक नाटक भी होना था और खालेद ने प्रस्‍तुति के लिए अन्‍तर्यात्रा नाटक चुना। यह नाटक एक स्‍त्री के जीवन का स्‍वयं उसके द्वारा समाज के लिए पुनरावलोकन है जिसके बीच की अनेक उतार-चढ़ावों भरी कष्‍टप्रद यात्रा से निकलकर वह अपनी पहचान बनाने के लिए एक बड़ा समय और उम्र व्‍यतीत करती है। खालेद चौधुरी ने बताया था कि कोलकाता से ऊषा गांगुली प्रस्‍तुति के लिए आयेंगी और उनको भोपाल से उज्‍जैन लेकर आना है फिर उनकी वापसी इन्‍दौर से कोलकाता हो जायेगी। अन्‍तर्यात्रा के लिए खालेद चौधुरी ने एक बड़ा सा सर्कल बनाया था। मंच पर केन्‍द्र में यह सर्कल था और ऊषा जी बहुत सारे द्वन्‍द्व, आवेगों, वेदना, पीड़ा और असमंजस के भावों के साथ एक कठिन यात्रा और सामाजिक यथार्थ की वास्‍तविकता को इंगित करती हुईं। इस प्रस्‍तुति के उपरान्‍त जब वे थोड़ी देर अपने आपमें होते हुए अब के समय में लौट रहीं थीं, उनसे कुछ बातचीत का अवसर मिला था। तभी उनकी कानपुर से लेकर वाराणसी और कोलकाता की यात्रा का संक्षेप भी जान पाया। इस कार्य का आतिथेय होने के नाते मैं ऊषा जी के सम्‍पर्क में आया था और उसके बाद अब तक बड़ी बहन सा स्‍नेह और अपनापन उन्‍होंने हमेशा दिया, वे जब जहॉं मिलीं, भोपाल हो या दिल्‍ली या फिर कहीं और, उतनी ही आत्‍मीयता से समय दिया और अनुभव साझा किए। 

भोपाल वे कई बार अपने नाटकों के साथ आयीं। एक बार उनको भोपाल अन्‍तर्राष्‍ट्रीय महिला दिवस पर समकालीन रंगसंसार में महिला रंगकर्मियों की महत्‍वपूर्ण उपस्थिति को लेकर लम्‍बे संवाद के लिए आमंत्रित किया था। सात-आठ साल पहले की बात होगी। उनकी वह यात्रा, उनका उद्बोधन गहरी भावनात्‍मक यादगार है। उनकी सबसे बड़ी खूबी यह थी कि वे भारत की सांस्‍कृतिक पृष्‍ठभूमि में आधुनिक रंगमंच और कलाओं की जितनी बड़ी जानकार थीं उतना ही पता उनको भारतीय लोक सांस्‍कृतिक जगत की बहुलता और प्रतिबद्धता के गहन तत्‍वों और साधकों की भी जानकारी थी। मुझे याद है कि अपना वक्‍तव्‍य देते हुए उन्‍होंने छत्‍तीसगढ़ की भरथरी गायिका सुरुज बाई खाण्‍डे के कण्‍ठ की तारीफ करते हुए घर परिवार से मिली प्रताड़नाओं और दुश्‍वारियों को व्‍यथित होकर कहा था। उसी तरह उन्‍होंने तीजन बाई की याद भी एक बहादुर कलाकार के रूप में की थी। आज के समय में तेजी से फैलते घटनाक्रमों और विवरणों के बीच में ऊषा गांगुली की रंगजगत में उपस्थिति और उनके महाभोज, लोककथा, होली, कोर्ट मार्शल, रुदाली, हिम्‍मत माई, मुक्ति, शोभायात्रा, काशीनामा और ट्रायोलॉजी वूवन अराऊण्‍ड द लाइफ (सआदत हसन मंटो), चाण्‍डालिका, मानसी और हम मुख्‍तारा जैसे सशक्‍त और राष्‍ट्रीय तथा अन्‍तर्राष्‍ट्रीय पहचान वाले नाटकों के बारे में हम जान गये होंगे। जरा कल्‍पना करें कि कैसे तीस-चालीस से भी ज्‍यादा वर्षों का समय जोधपुर और कानपुर जैसे शहरों से अपने भविष्‍य की स्‍वप्‍नसापेक्ष यात्रा को शुरू करने वाली एक महिला रंगकर्मी ने कोलकाता को अपनी सृजनभूमि मानकर-तय कर हिन्‍दी रंगकर्म की अलख जगायी और उसे देश-दुनिया में विस्‍तारित करते हुए उस लकीर को और लम्‍बा खींचने का काम किया जिसकी शुरूआत पिछली सदी में शीर्ष रंगकर्मी श्‍यामानंद जालान ने की थी। वे हिन्‍दी की प्राध्‍यापक थीं और भरतनाट्यम नृत्‍य में पारंगत लेकिन वे जानी गयीं एक पूर्णस्‍थ रंगकर्मी के रूप में। 

ऊषा गांगुली ने 1976 में कोलकाता में अपनी संस्‍था रंगकर्मी स्‍थापित की थी। चवालीस साल से वे इस संस्‍था के माध्‍यम से न केवल कोलकाता बल्कि देश भर से उनके पास आकर, रहकर रंगमंच का व्‍याकरण जानने वाले जिज्ञासु और सच्‍चे युवा कलाकारों को मार्गदर्शन प्रदान कर रही थीं। वे कहती थीं कि युवा कलाकारों ने सीखने और करने की अदम्‍य जिज्ञासा देखती हूँ। आने वाले समय में यह पीढ़ी ही अब तक की भारतीय रचनात्‍मक जगत में रंगकला को अपने सृजन के माध्‍यम से और बड़ी पहचान देगी। इनको निष्‍ठा के साथ दीक्षित करना ही मेरा लक्ष्‍य है। अपनी समृद्ध प्रतिष्‍ठा के साथ दुनिया के अनेक देशों जिनमें जर्मनी, पाकिस्‍तान, यूएसए, बांगलादेश आदि की सांस्‍कृतिक यात्राओं में अपनी वहॉं भी सम्‍मानजनक पहचान स्‍थापित करने वाली ऊषा गांगुली को संगीत नाटक अकादमी अवार्ड 1998 में मिल चुका था। भारत सरकार, उत्‍तरप्रदेश सरकार और पश्चिम बंगाल सरकार ने भी उनको अनेक प्रतिष्ठित सम्‍मानों से विभूषित किया था।

भारतीय रंगजगत में आज ऊषा गांगुली की अनुपस्थिति बहुत अविश्‍वसनीय लगती है। इधर जब हम राष्‍ट्रीय फलक में बड़ी पहचान और प्रतिष्‍ठा के साथ रेखांकित किए जाने वाले रंगकर्म के लिए ऊषा गांगुली, नीलम मानसिंह चौधरी आदि नाम लिया करते थे तो बड़ा गर्व का अनुभव होता था। ऊषा जी के इस महाप्रस्‍थान से एक बड़ा खेद यह बन गया है कि बड़ा स्‍थान रिक्‍त हो गया है, एक खालीपन उपस्थित हो गया है। कोलकाता की रंगकर्मी संस्‍था मातृशक्ति से वंचित हो गयी है। यह रिक्‍तता बनी रहेगी और इसे हम सदैव महसूस करेंगे। उनका जाना राजस्‍थान, उत्‍तरप्रदेश और पश्चिम बंगाल की ही क्षति नहीं है बल्कि देश के सांस्‍कृतिक समाज के लिए एक बड़ी क्षति है।
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2 टिप्‍पणियां:

  1. श्रद्धांजली। उषा गांगुलीजी का रंगजगत का कर्तृत्व बडे सटीक रूप में उतरा है।सन 87-91 मे आकाशवाणी भोपाल मे कार्यरत रहते समय रंगमंच से कुछ जुडा था और नाटक देख पाया था। श्रेष्ठ रंगकर्मी का परिचय ब्लॉग द्वारा प्राप्त हुआ।आप साधुवाद के हकदार है।

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    1. प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार आपका नितिन जी।

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