बुधवार, 8 अप्रैल 2020

पीयूष मिश्रा की तीन लघु फिल्‍में


इन दिनों लघु सिनेमा का एक आकर्षण बना है। अंग्रेजी मदिरा का एक ब्राण्‍ड और दूसरी संस्‍थाऍं अनेक प्रतिभाशाली निर्देशकों, लेखकों और कलाकारों को ऐसी फिल्‍मों के लिए सहायता दे रहा है। इनमें से ऐसी कई फिल्‍में ध्‍यान आकृष्‍ट करती हैं और हमारे सामने संक्षिप्‍त या संक्षेप में सशक्‍त कथ्‍य की जगह को स्‍थापित करती हैं........


कतरन




प्रेम सिंह निर्देशित इस फिल्‍म में पीयूष मिश्रा और अलका अमीन प्रमुख कलाकार हैं पति-पत्‍नी की भूमिका में। रिटायरमेंट के बाद पति के गुस्‍से, झगड़े और हस्‍तक्षेप से त्रस्‍त पत्‍नी, दोनों तलाक के लिए वकील से मिलने जा रहे हैं। रास्‍तें में दोनों ही के पास बच्‍चों के फोन आ रहे हैं, पापा/मम्‍मी, मान जाओ, ये मत करो, मैं आ रहा हूँ/ आ रही हूँ। सब ठीक हो जायेगा। वकील के सामने काऊंसिलिंग। शिकवे शिकायतें। अन्‍तत: वकील कहता है, ठीक है, तलाक हो जायेगा, कुछ दिन लेकिन अभी साथ रहना होगा। दोनों साथ लौटते हैं, अलग-अलग कमरे में बैठे हैं कि अचानक किचन में कुछ गिरने की तेज आवाज आती है, एक-दूसरे के अन्‍देशे में दोनों दौड़ते हैं। आटे का डिब्‍बा और अन्‍य सामान जमीन पर गिरकर फैल गया है। दोनों नीचे देर तक देखते हैं, फिर आपस में एक-दूसरे की ओर देखते हुए सिर उठाते हैं, दोनों की डबडबायी ऑंखें, जीवन इस तरह बिखर रहा है....। पीयूष मिश्रा के चेहरे पर रोते और सुबकते हुए भाव गहरे बिंध जाते हैं। अलका अमीन जीवनभर परिवार और चौके में खटने वाली उम्रदराज स्‍त्री की अब आराम की चाह की सात्विक कामना को व्‍यक्‍त करती है। दोनों में किसका दोष है? मन को छू जाने वाली फिल्‍म। 



कथाकार




सिंगल स्‍क्रीन सिनेमाघरों की जगह पर मल्‍टीस्‍क्रीन सिनेमाघर बनाये गये थे तब ऐसे बहुत से लोगों के सामने रोजी रोटी का संकट आ गया था जो मशीन पर रीलें चढ़ाकर प्रोजेक्‍टर चलाया करते थे। ऐसे ही एक प्रोजेक्‍टर ऑपरेटर की कहानी जो प्रोजेक्‍टर से परदे पर रोशनी फेंकने वाली खिड़की से हॉल का क्राउड और दर्शकों का शोर सुन-सुनकर अपना खून बढ़ाया करता है। वह दिलीप कुमार से लेकर अमिताभ बच्‍चन और सलमान खान तक की एंट्री पर बजने वाली तालियों का गवाह है। अब इसे नौकरी से निकाला जा रहा है क्‍योंकि लम्‍बे समय बाद जब नया मल्‍टीस्‍क्रीन सिनेमाघर तैयार होगा तब नयी टेक्‍नीक वाले, युवा कर्मचारियों की जरूरत पड़ेगी। उम्र के उत्‍तरार्ध में यह हारा हुआ उदास आदमी अपने गॉंव लौटता है। वह क्‍या करे? आखिर एक दिन उसे जीने का जरिया, अपने ही अब तक के अनुभवों से सूझता है। वह कहानी नैरेट करना शुरू करता है। पहले बच्‍चों को कहता है, कहानी सुनोगे? तब बच्‍चे भाग जाते हैं। फिर एक-एक करके बच्‍चे, फिर समूह, फिर परिवार, फिर गॉंव......उसकी सुनायी कहानी के लिए भीड़ जुटती है। हारा हुआ गॉंव लौटा आदमी अपने ही गॉंव में जीने का लक्ष्‍य फिर प्राप्‍त करता है। गॉंव की खूबसूरत संरचना के बीच पीयूष मिश्रा की यह अकेली बहुआयामी प्रतिभा को व्‍यक्‍त करने वाली सराहनीय फिल्‍म है। इसका निर्देशन अभिमन्‍यु कनोडिया ने किया है। 



ग्‍लू


ग्‍लू के निर्देशक शरद दासगुप्‍ता हैं। इस फिल्‍म में पीयूष मिश्रा दृश्‍य में नहीं हैं बल्कि स्‍वर में हैं या यों कहिए कि फिलॉसफी में हैं। फिल्‍म बच्‍चे और पति के लिए टिफिन तैयार करती स्‍त्री के किचन में किए जा रहे उपक्रम से शुरू होती है। छोटा बच्‍चा जमीन पर बिछी दरी में पेट के बल लेटा हुआ सुपरमैन के उड़ने के एक्‍शन कर रहा है। जल्‍दी जल्‍दी से स्‍त्री पति और बेटे को टिफिन पकड़ाती है, बेटा पिता के साथ ही निकल जाता है और वह थकी मुद्रा में बैठ जाती है। स्‍कूल का दृश्‍य जिसमें बच्‍चा सुपरमैन का चित्र बनाने में तल्‍लीन है और पीछे उसका एक सहपाठी साथी उसको तंग कर रहा है। नहीं रहा जाता तो बच्‍चा उससे हाथापाई करने लगता है। मास्‍टर जी तंग कर रहे सहपाठी के बजाय बच्‍चे को सजा देते हैं। मेज पर उसका बनाया सुपरमैन का चित्र देखकर कहते हैं इसी तरह बाहर एक्‍शन में खड़े रहो। बच्‍चा समय पास कर रहा है। इस बीच खिड़की से जाते हुए चींटे को हाथ में लेकर खेलता भी है। एक और दिन के घर से बाहर निकलते हुए प्रसंग के पहले बच्‍चे के पिता से मछली का जार गिरकर टूट जाता है, वह पत्‍नी से झगड़ा करता है। पत्‍नी भी। शाम को बच्‍चा अकेला लौटता है। देखता है उसके माता-पिता फिर झगड़ रहे हैं। वह स्‍नेहिल हस्‍तक्षेप करना चाहता है अपने आपको सुपरमैन कहते हुए पिता से कहता है कि आप मम्‍मी को मत डॉंटा करो। वह सुपरमैन की मम्‍मी है, नहीं तो सुपरमैन गुस्‍सा हो जायेगा। इस पिता बोलते हैं सुपरमैन हो तो ऊपर जाकर उड़ो.......। बच्‍चा टूटकर सीढि़यॉं चढ़ता हुआ ऊपर चला जाता है जिसके बाद एक बड़ी दुर्घटना हो जाती है। लड़ते हुए पति-पत्‍नी को इसका आभास न रहा होगा शायद। इसी आखिरी छोर पर पीयूष मिश्रा की आवाज में गरिमा ओबराह का गीत सुनता हूँ.....अब तू किसे पुकारे....। यह एक भारी फिल्‍म है मगर कलह से अशान्‍त घर-गृहस्‍थी के दोनों चरित्रों पति और पत्‍नी को सचेत करने वाली। यह फिल्‍म राजनांदगॉंव में फिल्‍मायी गयी है।


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