समय चाहे कोई भी हो, अच्छा सिनेमा और दर्शक इनके बीच एक बड़ी सी दूरी बराबर बनी रहती है। अखबारों में भी सिनेमा पर सार्थक चर्चा या समीक्षा के दिन बरसों पहले पूरे हो चुके हैं। अब समीक्षाऍं सम्मोहनभरी उदारता को व्यक्त करती हैं। सिनेमा के प्रति आधा-अधूरा या बिल्कुल भी ज्ञान न रखने वाले उसके बारे में अपना फैसला लिख दिया करते हैं। यहॉं भी विभाजन अंग्रेजी और हिन्दी फिल्म पत्रकारिता का बहुत पृथक-पृथक है। अंग्रेजी में सिनेमा का विश्लेषण दृष्टान्तपरक होता है जिसके लिए अखबारों में बहुत जगह है। हिन्दी अखबार की समीक्षा तीन सौ शब्दों में खत्म हो जाती है। ऐसे ही स्थूल कारणों के बीच यदि तीन-चार साल पहले चाक एन डस्टर जैसी फिल्म भी लोगों तक नहीं पहुँच सकी तो यह अपनी ही पहुँच का पक्षपातपूर्ण होना है। कल इस फिल्म को देखते हुए यही लगा कि एक सार्थक और सुथरी फिल्म को कितने गुणी, अनुभवसिद्ध और प्रतिभासम्पन्न कलाकार अपने होने का अर्थ प्रदान करते हैं और उस फिल्म का सिनेमाघरों में आना और चले जाना पता ही नहीं चलता।
चाक एन डस्टर को
दिल्ली,
राजस्थान, उत्तरप्रदेश और बिहार राज्यों
में करमुक्त भी किया गया था। यह फिल्म शिक्षा प्रदान करने वाले निजी विद्यालयों
में मालिकों, प्रबन्धकों और दुष्टवृत्ति अवसरवादियों के
हस्तक्षेप पर केन्द्रित है। फिल्म में हम देखते हैं कि किस तरह मालिकों की
खुशामद करके, उनको भ्रमित करके स्कूल की सुपरवायलर महिला
कामिनी गुप्ता प्रिंसीपल बन जाती है। जितने समय वह सुपरवायजर रहती है, प्रिंसीपल की प्रतिनिधि रहती है फिर बाद में वह हथकण्डे अपनाकर प्रिंसीपल
को हटवा देती है और स्वयं अपने नेतृत्व को अपने व्यवहार में और कटुता और
संवेदनहीनता लाकर शिक्षिकाओं का काम करना मुश्किल कर देती है। वह अपने से भी
वरिष्ठ और अनुभवी अध्यापिकाओं के साथ अपमानजनक व्यवहार करती है। उनकी मानसिक
शान्ति को भंग करती है और ऐसी स्थितियों तक ले आती है कि वे नौकरी छोड़कर चली
जायें। उच्च प्रबन्धन में इस प्रिंसीपल का तर्क यह होता है कि वरिष्ठ हो जाने
के कारण इनको जितना वेतन दिया जा रहा है उतने वेतन में तीन नये अध्यापक रखे जा
सकते हैं।
स्कूल चलाने
वाले मालिकों के बेटे के पास इसे ऊँचाई पर ले जाने का स्वप्न है। वह एक दूसरे स्कूल
मालिक से स्पर्धा रखता है जिनका स्कूल सर्वश्रेष्ठ है और अधिक बड़े परिणामों
वाला। जो स्कूल सर्वश्रेष्ठ है उसके मालिक का रुझान भी इस कम अनुभवी स्पर्धी को
ध्वस्त कर देने का है। इस तरह कान्ताबेन स्कूल की वरिष्ठ अध्यापिका विद्या
को उनकी क्षमता और पढ़ाने के तरीके पर प्रश्न चिन्ह लगाते हुए टर्मिनेट कर देना
स्कूल और प्रिंसीपल को भारी पड़ जाता है। विद्या को स्कूल में ही हृदयाघात होना
और अस्पताल में उनकी एंजियोप्लास्टि के बाद ज्योति जो एक दूसरी गुणी टीचर हैं,
इस मोर्चे को सम्हालती है। नौकरी जाने के खतरे से डरी साथी अध्यापिकाऍं
रो रही हैं, भयभीत हैं, बेबस हैं लेकिन
खुलकर ज्योति का समर्थन कर पाती। ज्योति अपना इस्तीफा देती है और एक शिक्षक के
मान सम्मान का प्रश्न उठाते हुए आमजन के बीच सम्मान के प्रश्न और प्रबन्धन की
हठधर्मिता के खिलाफ जनसमर्थन हासिल करती है। सोशल नेटवर्क और पूर्व छात्रों के
समर्थन से यह विषय इतना बड़ा बन जाता है कि आखिर में प्रबन्धन को झुकना होता है।
फिल्म के अन्त में विद्या और ज्योति को उसी स्कूल में नौकरी एवं एक बड़ा इनाम
मिलता है लेकिन वे नौकरी को स्वीकार न करके इनाम की राशि से एक ऐसे स्कूल को
बनाने का संकल्प प्रकट करती हैं जिसमें अन्याय, अपमान,
भेदभाव, पक्षपात न हो, छात्रों
के भविष्य के साथ खिलवाड़ न हो। ज्योति और विद्या यह संकल्प अपनी ईमानदार और
भली प्रिंसीपल इन्दु शास्त्री के नेतृत्व में पूरा करना चाहती हैं। आखिरी का
उत्तर दिलचस्प होता है जब दोनों से पूछा जाता है, आप क्या
करेंगी तो दोनों जवाब देती हैं, हम वही करेंगे, चाक एन डस्टर।
जिस प्रकार के
सकारात्मक सन्देश के साथ फिल्म खत्म होती है, वह
ही दर्शकों के मन में रह जाने वाली है। फिल्म में ईमानदार प्रिंसीपल इन्दु शास्त्री
की भूमिका जरीना वहाब ने निभायी है। विद्या शाबाना आजमी हैं। ज्योति जूही चावला। कामिनी
गुप्ता दिव्या दत्ता। उपासना सिंह टीचर मंजीत। अन्य कलाकारों में मित्रवत उपस्थिति जैकी श्रॉफ, अतिथि भूमिका ऋषि कपूर की है। विद्या के पति के रूप में गिरीश कर्नाड हैं।
तेजतर्रार चैनल रिपोर्टर के रूप में ऋचा चड्ढा। जैसा कि शुरू में कहा यह फिल्म
बहुत सारे अनुभवी कलाकारों का समाज को तोहफा है एक अच्छी फिल्म के रूप में। फिल्म
भावनात्मक दृश्यों का मन को छू जाने वाला गुलदस्ता भी है। विद्या को हार्ट अटैक
के बाद प्रायवेट अस्तपाल में नर्स का बेटी से रिसेप्शन में पचास हजार रुपये जमा
करने को कहना, हमारी आज की महँगी चिकित्सा और आम आदमी की
त्रासदी पर कटाक्ष है। आपसी संवेदनशीलता यह भी है कि ज्योति यह बन्दोबस्त करती
है। बाद में विद्या के देश दुनिया में विभिन्न बड़ी जगहों पर काम करने वाले पूर्व
छात्रों का समर्थन पूरे अवसाद के लम्हों को बदल देता है। यों तो कलाकारों में सभी
का अभिनय अपनी जगह बहुत महत्वपूर्ण है लेकिन दिव्या दत्ता ने कामिनी गुप्ता के
किरदार को नकारात्मकता के उच्चतम स्तर पर ले जाकर जिया है। वे इस फिल्म में
जितना दर्शकों की नफरत प्राप्त करती हैं उतनी ही उनकी प्रतिभा को सराहा जाना
चाहिए। इस किरदार की खासियत यह है कि यह अहँकार से भरा, निर्मम
और षडयंत्रों में माहिर है लेकिन अन्यथा कोई वैसे आक्षेप नहीं हैं जो फिल्म के
स्तर को जरा भी प्रभावित करें। सेडिस्ट होना कामिनी के मनोविज्ञान का प्रबल हिस्सा
है।
जयन्त गिलाटर निर्देशित यह फिल्म आज की
विसंगतियों, खतरों की बात करते हुए शिक्षा के
संसार में संवेदनशील एवं मानवीय हस्तक्षेप की बात करती है। इसे नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। इस फिल्म को जरूर
देखा जाना चाहिए। फिल्म को रंजीव वर्मा और नीतू वर्मा ने लिखा है। संवाद बहुत
प्रभावी हैं। बाबा आजमी बरसों बाद इस फिल्म का छायांकन करने आये हैं। जावेद अख्तर
के गीत और संदेश शांडिल्य का संगीत मन को छूता है। उत्कृष्टता के लिहाज से मुझे
यह चार सितारा फिल्म लगती है।
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बहुत अच्छी समीक्षा
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